मंगलवार, 26 सितंबर 2017

दूर क्यों जाना...

हम सब हैं जहाँ 
क्यों है उस जगह से शिकायतें, क्यों छूना चाहते हैं क्षितिज? 
क्या सोचा है उस अनदेखे क्षितिज का रंग रूप कैसा है? बस 
जहाँ हैं वहाँ से दुखी ।जो पास है उससे परेशान, इस कदर कि चल देते हैं अनदेखी मछली का निवाला बनने! 
         क्यों नहीं रंग भरते अपने चारों ओर की खाली दीवारों में?  क्यों नहीं बनाते इन पर इन्द्रधनुष? बाहर का इन्द्रजाल हमें लुभावना लगता है और अपना नीड़ भदरंग.. कभी सोचा है, ऐसा क्यों???? 
         खुद से शिकायतें, खुदा से गिला 
         ख़ुदी से निकल, खुद से मिल
क्या जानते हैं हमारी सारी शिकायतों के मूल में " मैं" है! 
जब तक हमारा मैं हम में  है तब तक हम उसको लेकर दर दर भटकेंगे और हासिल खालीपन...  जिस रोज़ मैं के माट को रिता लेंगे जहान भर के रंग और खुशियाँ हमारे भीतर बेताल नृत्य करेंगी ।रंग आपके, मस्ती आपकी, नृत्य आपका.. फिर दूर क्यों जाना..  अपने भीतर के किसी बेढब कोने से शुरुआत करें.. आज अभी ।
प्रीति चौहान 
26सितम्बर2017

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